Saturday 25 November 2017

बद्दुआयें

लगता है वो बद्दुआयें असर कर रही हैं
मनके मालाओं से टूट कर बिखर रही हैं

पिरोता हूँ हर रोज इसी उम्मीद पे की निभ जाएगी जिंदगी भर
पर टूट जाती हैं फिर ज्यूँ रखता हूँ बंदगी कर

मनको की जगह अब गाठों ने ले ली हैं
गाँठें बड़ी मनके छोटी हो चली हैं

देखा है लोगो को नए धागे पिरोते
बार बार सपनो की नयी दुनिया संजोते

पर मैंने ही खुद जब ये माला चुना था
अपनों परायों से लड़ कर गुना था

कैसे पल में पराया कर दूँ उस बंधन को
जिन्दा रखा जिसने मोतियों के स्पंदन को

आँखों का हाल रेगिस्तान सा है
रेत नहीं भीतर पर भान सा है

खुली ऑंखें शब से सहर कर रही हैं,
लगता है वो बद्दुआएँ असर कर रही हैं!

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