Saturday 25 November 2017

बद्दुआयें

लगता है वो बद्दुआयें असर कर रही हैं
मनके मालाओं से टूट कर बिखर रही हैं

पिरोता हूँ हर रोज इसी उम्मीद पे की निभ जाएगी जिंदगी भर
पर टूट जाती हैं फिर ज्यूँ रखता हूँ बंदगी कर

मनको की जगह अब गाठों ने ले ली हैं
गाँठें बड़ी मनके छोटी हो चली हैं

देखा है लोगो को नए धागे पिरोते
बार बार सपनो की नयी दुनिया संजोते

पर मैंने ही खुद जब ये माला चुना था
अपनों परायों से लड़ कर गुना था

कैसे पल में पराया कर दूँ उस बंधन को
जिन्दा रखा जिसने मोतियों के स्पंदन को

आँखों का हाल रेगिस्तान सा है
रेत नहीं भीतर पर भान सा है

खुली ऑंखें शब से सहर कर रही हैं,
लगता है वो बद्दुआएँ असर कर रही हैं!

Virgin train



Virgin is the train I ride every day,
Keep all luggage by my side every day!
Metro is the paper I pick every day,
Stuffs in the bin make me sick every day! :)

Train Manager wants to check my ticket every day,
Passengers want to chat about cricket every day!
Beautiful ladies looking for seat every day,
Sitting with them rises heart beat every day! :)

Half an hour at least I try to sleep every day,
In the exact time phones beep every day!
Staffs are new friends with I talk every day,
Doors of the toilet I lock every day! :)

I am first on train to get off every day,
For Victoria tube station I Set off every day!
In tube then I get squashed every day,
In sweat the deodorants get washed every day! :)


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This year's National Poetry Day theme is 'Truth'.
Plain talk, No mess,
Truth is fearless.
It does not manipulate,
Neither does it speculate.
Everyone has their own truth,
Be it elderly or Youth.
One sees 6, the other sees 9
Depending on situations both may be fine.
Actual Truth always remains within us,
Sometimes it can create bit of a fuss.
It always comes triumphant at the end,
Follower of Truth is a real Godsend.

जब से

दोस्तों पे ज़माने का असर हो गया जब से,
दुश्मनो से पूछ कर दोस्ती करता हूँ तब से !

प्यार में धोखे का चलन हो गया जब से,
दिल न लगाने की नसीहत देता हूँ तब से !

रिश्तेदारों ने बेबजह दुरी बढ़ा ली जब से,
आईने में खुद को ढूंढता हूँ तब से !

हाथों में पत्थर उठा लिए अपनों ने जब से,
खिरकी के पास खरा रहता हूँ तब से !

हादसे बढ़ गए हैं सडको पे जब से,
बाहर निकलने से डरने लगा हूँ तब से !

यारों के वो महफ़िल बंद हो गए है जब से,
सोशल मीडिया पे एक्टिव हो गया हूँ तब से !

हर तरफ चीखने की आवाज आने लगी है जब से,
ख़ामोशी की आवाज सुनने लगा हूँ तब से !

मंदिरों पे हो गया पुजारियों का बसर जब से ,
दिल में ही अपने खुदा रखता हूँ तब से !

-आशुतोष 

सोचता हूँ क्या होगा


सोचता हूँ
वादों और जुमलों की जंग में आशाओं का क्या होगा ,
बेकाबू होते नेताओं की भाषाओं का क्या होगा !

सोचता हूँ
बॉर्डर पर कट रही सिरों के कफ़न का क्या होगा ,
पेंशन हेतु सैनिको की आमरण अनसन का क्या होगा !

सोचता हूँ
निहत्थों पर चले पुलिस के डंडे का क्या होगा ,
कश्मीर में लहरते पाकिस्तानी झंडे का क्या होगा !

सोचता हूँ
कर्जे से लड़ते किसानों की आत्महत्या का क्या होगा ,
हरित क्रांति के लिए आई सत्ता का क्या होगा !

सोचता हूँ
सूखते फसल और फिर बाढ़ की मार का क्या होगा ,
नदियों और नहरों के जीर्णोद्धार का क्या होगा !

सोचता हूँ
सच्चे संतो पर लगते आरोपों के ब्यौपार का क्या होगा ,
बिकाऊ न्यूज़ परोसती मीडिया के आचार का क्या होगा !

सोचता हूँ
प्रति दिन मजहब में बटते इंसान का क्या होगा ,
दराजों में बंद गीता बाइबिल कुर्रान का क्या होगा !!

खुदा के बन्दे

डर से मुँह छुपाये और हाथों में ताने बन्दूक ,
निर्दोषो को मारकर आतंक मचाने की भूख !

तेरा खुदा औरों के खुदा से है जुदा ,
हूर क्या दोज़ख भी नसीब ना हो ऐसी तेरी सज़ा !

खुदा के बन्दे ये बता कि तूने किस अंदाज में बंदगी को है ढाला ,
शैतान को पत्थर मारने की ऐसी बेताबी कि इंसान को कुचल डाला !

मीडिया

हर मामले में मीडिया आग में घी डालती है,
तिल का तार बना लोगों के ख़ून उबालती है!

समझ गई तेल लेने, जिसे बुद्धिजीवी वर्ग को कान में डाल सो जाना है,
राजनीती का अर्थ सच छुपाकर, सिर्फ विरोधी पर लाँछन लगाना है!

चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आवश्यकता हो राजनीती शास्त्र में पीएचडी,
और ज्वाइन करने से पहले नैतिक शिक्षा की पढाई करे सारे जन प्रतिनिधि !

लेफ़्ट की आज़ादी

चाहा तो बहुत कि तुझपे ऐतवार करूँ कन्हैयाँ,
पर तूने जो कुछ भी कहा उसमें नया क्या था भैया!

गरीबों के पुराने मसीहा - लालू मुलायम या फिर माया,
अलग अलग अंदाजे-बयां में सबने यही था फ़रमाया!

दशकों से यही कह कर तो लेफ़्ट वाले रोटियाँ सेंक रहे हैं,
गरीबी से आज़ादी पाई बेंगाल को सब देख रहे हैं!

सरेआम भारत सरकार को तूने मन भर सुनाई,
और कितनी आज़ादी चाहिए मेरे भाई !

और ब्राह्माणवाद से आज़ादी सुन हँसी आई बहुत जोर,
क्युकी ब्राह्मण आर्थिक रूप से आज़ सबसे है कमजोर!

और जो लोग पूंजीवाद से आज़ादी चाहते थे पहले,
वो विदेशों में खुब छुपाये और बना लिये महलें!

तू भी बैंक से लोन ले, कर धंधा तन कर,
दिमाग लगा और दिखा लोगों को अम्बानी बन कर!

जितना मीडिया तुझे चमका चुकी है लगता नहीं तू कुछ करने वाला है,
क्यूंकि इंतजार ख़तम अब कई पार्टियों से तुझे टिकट मिलने वाला है!

हमारा क्या है पहले अन्ना को देखा फिर केजरीवाल आये,
उसके बाद हार्दिक फिर रोहित और अब तुम हो छाये!

हमें नुक्कड़ पे गप मारने के लिए चाहिए नयी टॉपिक चाय और समोसे,
देश तो कल भी था राम भरोसे और अब भी है राम के ही भरोसे!

विडम्बना

अब के जो ना संभले तो फिर जायेंगे चूक
सावन के आस में क़ब तक धरती उठाये हूक

कही खेत हुई रेगिस्ता इतनी कड़ी है धूप
तो कहीं मई महीना दिखाती बर्फ़बारी का रूप !

पटाखे और बम फोरने से ग़र ख़ुश देवी होतीं,
तो सीरिया में इस तरह इंसानियत ना रोती!

विडम्बना है की धर्म को हम तत्वतः समझते नहीं,
और कोई सदगुरु जो समझा दे उसको तरसते नहीं!

बुलन्दी

कम उम्र में इतनी बुलन्दी भी अच्छी नहीं होती,
सितारों के बीच की चमचमाती दुनिया सच्ची नहीं होती!

या ख़ुदा शोहरत दी थी तो थोड़ी हिम्मत भी दी होती,
फिर रूठ कर इस तरह दुनिया से रुक्सत, वो बच्ची नहीं होती!

बेजुबान

कल इंसानों के बीच कुछ ऐसी साज़िश हुई,
मैं बेजुबान था मुझपर हि डंडों की बारिश हुई!

करता भी क्या मैं आशु, पीटता रहा सरेआम,
एक के हाथ में लाठी थी, एक के हाथ लगाम!

वैसे मेरी तरह कितने ही, जिंदा काट दिये जाते हैं हर रोज़,
निर्दोष गले पे चलती हैं आरी, कोई नहीं करता पर खोज!

चुपचाप जो गटक जाते हैं जिस्म हमारा संवेदना को छोड़,
जग गई ज़मीर उनकी, मेरी टाँग ने मचा दी शोर!

अब क़ोई ना हमें मारेगा, ना ही क़ोई काटेगा,
ना ही क़ोई इंसानों को, इंसानों से बाँटेगा !

देश बेचारा

राजनीती का ख़ेल भी अज़ब हीं न्यारा,
कोई सोनिया का मारा तो कोई मोदी से हारा,

कोई डिग्री के पीछे तो किसीको सूखे का सहारा,
सब के बीच राह तकता रह गया देश बेचारा !

सस्ती चाईनीज ख़रीद अपनी तरक़्क़ी को बस कोसा हमनें,
उम्र भर की कमाई देकर दुश्मनों को बस पोषा हमने !

कितनी भी कर लो नापाक़ पाकी से वार्ता बस नाम भर ही है,
शरहदों पे कुर्बान शहीदों का लहू हमारे सिर भी है !

जितना काला धन पार्टियाँ लगा देतीं हैं दूसरों को हराने में ,
बहारें आ जायें गर उतना लगा दें वादा निभानें में !

एक ओवैसी सबको मिनटों में काट डालना चाहता है,
तो दूसरा भारत माता की जय कहना हराम मानता है,

खुद कट्टर हो दुसरो को असहिस्णु बताने वाले,
जय बोलना गर हराम हो तो माँ तुझे सलाम गा ले,

सच तो ये है की तेरी नीयत में ही खोट है,
क्यूंकि लक्ष्य तेरा सिर्फ़ माइनॉरिटी वोट है!

किसकी थी खता और किसको मिली सज़ा,
मौत बाँटते सियासत-गर्द और कहते हैं हादसा !

Thursday 23 November 2017

नोटबंदी

साठ साल है झेला साथी कुछ दिन और सह लेंगे 
आतंकवाद मिटाने को बिना नोट भी रह लेंगे

बलिदान है रक्त में अपने देश की ख़ातिर सह लेंगे 
नक्सलवाद मिटाने की ख़ातिर बिना नोट भी रह लेंगे

धन कुबेर क्या बनना साथी ख़ुद को ग़रीब कह लेंगे 
काला धन मिटाने को साथी बिना नोट भी रह लेंगे

ऐश मौज़ क्या करना साथी फ़कीरी में ही लह लेंगे 
भ्रस्टाचारियों के मर्दन को बिना नोट भी रह लेंगे

देशभक्ति सिर्फ़ शब्द नहीं ह्रदय में हम गह लेंगे 
माँ भारती की रक्षा हेतु बिना नोट भी रह लेंगे !

नया साल

क्या कुछ पाया, कितना कुछ खोये 
सोच कर नए साल पर बहुत रोये

रोज निकलते थे और कही खो जाते थे 
रात में थकन को ओढ़ सो जाते थे

चमक जूतों की बढ़ाने में, आँखों की रौशनी गवाँते रहे 
देशी घी अब मयस्सर कहाँ, बस ब्रेड ही चबाते रहे

अपने बच्चों की तक़दीर तो बनाते रहे 
पर माँ बाप की तक़लीफ़ भुलाते रहे

रिस्ते इस कदर निभाते रहे 
बस रूठते मनाते रहे

बार बार जख़्म बेवफाई के खाते रहे 
फिर भी उम्मीद नए दोस्तों से लगाते रहे

खिड़की खोल रोज रोशनियों को बुलाते रहे 
नये सूरज की तलाश में रोज दिये जलाते रहे

लम्हें यूँ हि आते और जाते रहे
न जाने क्यूँ हर वर्ष हम नया साल मनाते रहे!

चलते रहे हम

अजब कातिलाना अंदाज है इस जालिम फ़िज़ा का, 
डूबने का समय आता है तब सूरज आसमान पे छाता है !

अपनों की इस दुनिया में कोई अपना सा ना मिला, 
जिंदगी की दौर में जो भी मिला अपनी हक़ीक़त छुपाता सा मिला।

हम अनजान चेहरों के शहर से हो आये हैं,
सिर्फ धूल नहीं लाये तजुर्बा भी साथ लाये हैं।

खुश् हूँ की शहर की सड़कें चतुरंग हो गयीं हैं,
ग़म इस बात का है की दिल की गलियाँ तंग हो गयीं हैं।

किसी से मिलने की ख़ुशी है, किसी से बिछुड़ने का ग़म।
चलने का नाम जिंदगी है, चलते रहे हम ।

लेफ्ट राईट

लगता है दौर-ऐ-शियासत ने नयी राह चुनी है
वरना शेर ने कब कुत्तों की सुनी है !

ये कोई क्रिकेट की पिच नहीं जंग-ए-शियासत है गुरु, 
यहाँ उसूल और वफ़ा बेच कर ही होती है पारी शुरू !

हर्ज़ नहीं ग़र लाखों पशु रोज़ ख़ून के घाट उतार दिये जाते हैं, 
तकलीफ़ ये के हम क्यूँ उनके साथ कुश्ती कर जल्लीकट्टू मनाते हैं !

एक लड़की को एक धमकी मिलती है तो पूरी दिल्ली, पूरी मीडिया, पुरे देश में हल्ला हो जाता है, 
पर केरल में ९ महीने में भाजपा संघ के ११ लोगों का कत्लेआम ख़बरों में कही खो जाता है!

हमारे देश की सेक्युलर मीडिया को लेफ्ट ही हमेशा राईट दिखती है, 
राईट कितना भी राईट हो उनकी सोच में डाईनामाइट दिखती है !

अब तो जवानों को छूट दो की वे अपने साथियों की शहादत का बदला लें कुछ इस कदर से,
कि घर घर से नक्सली निकाल कर ऐसी मौत दें कि मरने के बाद भी रूह काँपती रहे डर से।

कही क़र्ज़ के बोझ तले दब भूख से मर रहा अन्नदाता किसान है,
कही कटप्पा और बाहुबली के पीछे करोड़ो लगा रहा इंसान है,


लगातार होती गरीब बच्चों की मौत और डिजिटल इंडिया बनाने में लगे हैं हम,

मुलभुत सुविधाएं तो मुहैया हैं नहीं, शिवाजी और पटेल की प्रतिमा बनाने में लगे हैं हम !

कही हीरो के पोस्टरों को दूध से यूँ नहलाये मानो भगवान है,
देख सब लगता है सचमुच मेरा देश कितना महान है।

Anti Social Media

Social Media these days has big impact on life,
With reactions more often sharper than knife.

It seems everyone is in for a big rat race,
Trying to underpin the rivalry they face.

Posting bigger holidays & better weekends,
Selfie with new arrivals & latest trends.

Counting the likes and comments in turn,
Higher they go greater the fun.

If you miss to like theirs, they won't like yours,
If you miss to comment, they won't comment of course.

Some people who are not able to make it that big,
Start thinking they are having a life like pig.

As these posts with boasts continuously yield,
Without us realising mental sickness starts to build.

So, Let others go places and be busy,
Life is too short, please take it easy!

-Ashutosh

Wednesday 22 November 2017

क़श्मक़श

दिल और दिमाग़ में चल रही क़श्मक़श ,
निन्यानवे के चक्कर में कहाँ गया फँस ! 

घर बार छूटा रिश्ते नाते सब छूटे ,
मिले तो सिर्फ़ दिखावे के व्यवहार झूठे !

कब की छूट गयी वो बचपन की गलियाँ ,
अब तो राहों में बस सजी कागज की कलियाँ !

वो माँ संग बच्चों का गाना -दो एकम दो , दो दूनी चार ,
अब टु वन ज टू, टू टू ज फोर से हो गए पेरेंट्स बेकार !

वो डंडे से डराना ट्यूशन में सरजी का ,
पहाड़ लगे पढ़ना अब पुस्तक भी मर्जी का !

तब हर बात पे बजती थी दोस्तों की तालियाँ ,
वो बैठक वो कहकहे और वो बेबाक गालियाँ !

वो क्रिकेट के चक्कर मे देना ट्यूशन की बलि ,
अब के गोल्फ से, गिल्ली डंडा ही थी भली !

वो चित्रहार देखना पड़ोसी के घर में भागकर ,
कहना - आया हूँ दोस्त से एक बुक माँगकर !

वो खुले आसमान तले पर्दे पे फ़िल्मों का मज़ा ,
अब तो मल्टीप्लेक्स में जाना भी लगे है सजा !

वो फुटबॉल का मैच और झूमती हुयी बारिश ,
अब तो टीम बनाने को भी करनी परे गुज़ारिश !

वो धागे माँजना धूप में पतंगों के लिए ,
अब बाहर निकलना भी लगे हार्मफुल अंगों के लिए !

वो मुहल्लों को लाँघ जाना कटे पतंगों के पीछे ,
और अब उतरना भी बेकार लगे बालकनी से नीचे !

एक उमँग उठती थी कटी पतंगों की हर अंगराई पर ,
अब नज़रे उठती हैं सिर्फ़ दूसरों की बुराई पर !

वो स्कूल के डेस्क पर ज़माना गानों की महफ़िल ,
अब अग़र ग़लती से भी गुनगुनाओ तो कहलाओगे ज़ाहिल !
 
वो माँ का प्यार, भाई बहनों का दुलार और पिताजी की मार ,
काश वापस आ जाये वो दिन फिर से यार !

वो गलियाँ अक्सर मुझे बुलातीं हैं ,
वो मुहल्ले की नुक्कड़ अब भी याद आती हैं !

सोचता हूँ सब छोड़ उस गली का हो जाऊँ ,
उन बचपन की लम्हों को फ़िर से जी जाऊँ !

दिल और दिमाग़ में चल रही क़श्मक़श ,
अब जैसे भी हो यहाँ से निकल जाऊँ बस !

जिंदगी

कही दो वक़्त की रोटी को है मोहताज़ जिंदगी ,
कही ब्यंजन पकवान खा बीमार जिंदगी.

कही सड़को पे पलती नवजात जिंदगी ,
कही महलों में बसती ख़ुशहाल जिंदगी.

कही दो बूँद पानी को तरसती जिंदगी ,
कही मयखानो में जाम बन छलकती जिंदगी.

कही एक सिक्के का करती इन्तेजार जिंदगी ,
कही धन के अंबार लुटाने को तैयार जिंदगी.

कही प्यार ढूँढ़ती नौजवान जिंदगी ,
कही तलाक़ मांगती परेशान जिंदगी.

कही एक नौकरी के लिए लगाती क़तार जिंदगी ,
कही मुँहमाँगे दाम पाती ब्यापार जिंदगी. 

कही एक औलाद पाने को भटकती जिंदगी ,
कही गर्भपात करा मटकती जिंदगी. 

कही दहेज़ के ज़ोर पर जलती जिंदगी ,
कही घर जमाई पर पलती जिंदगी.   

कही दोस्तों पे जान लुटाने को तैयार जिंदगी ,
कही दोस्तों से जान छुड़ाने को लाचार जिंदगी. 

कही कड़कड़ाती धूप में तलवे जलाती जिंदगी ,
कही राहों में मखमली चादर बिछाती जिंदगी.

क्यूँ हैं इतने रंग जुदा दिखाती जिंदगी ,
काश सब का जीवन एक सा बनाती जिंदगी. 

तेरा रस्ता देख रहा हूँ

जानता हूँ के तू नहीं आयेगा ,
पर तेरा रस्ता देख रहा हूँ अब भी !

हर सुबह तुझे भुलाने का भ्रम करता हूँ ,
पर हर शाम तेरी याद लेकर चली आती है !

जीवन की राहों में हैं हजारों ग़म ,
पर हर ग़म अब मुझे छोटा लगता है !

जब भी कभी कोई दिल दुखाता है ,
तेरी यादों के दामन से लिपट जाता हूँ !

आँखों से बहते अश्क़ कह उठते हैं ,
के मेरे इस हालात की वजह तू है !

पर ना जाने क्यूँ चाहकर भी मैं तुझसे नफ़रत नहीं कर पाता ,
ना जाने क्यूँ चाहकर भी मैं तुझे भुला नहीं पाता !

जानता हूँ की तूने ही मुझे ठुकराया था ,
पर अब भी तेरी यादें ही शुकुन देती है !

क्यूँ जीये चला जा रहा हुँ इसी उम्मीद पे ,
की ऐसी एक शाम आयेगी जो तुझे अपने साथ लाएगी !

न जाने क्यूँ अब भी दिल में एक आस लगी है ,
तुझसे मिलने की अमिट प्यास लगी है !

जानता हूँ की तू मुझसे जुदा होकर भी ख़ुश है ,
पर मैं तेरा रस्ता देख रहा हूँ अब भी !

हर पल दिल में एक अजीब सी कश्मक़श है ,
की काश कोई हवा का झौंका तेरी खुशबू लाये !

हर पल मन में ये अगन है ,
के काश कोई कोयल तेरी ख़बर सुनाये !

जानता हूँ की सारे रस्ते कबके बंद हैं ,
पर मैं तेरा रस्ता देख रहा हूँ अब भी !

तेरा रस्ता देखते देखते एक दिन थम जायेंगी ये साँसे ,
पर देख़ लेना बंद नहीं होंगी ये ऑंखें !

क्यूंकि तेरा रस्ता देख रहा हूँ मैं अब भी ,

और तेरा रास्ता देखता रहूँगा मैं तब भी !

कैसा कराटे

मेरे दोस्त विनय प्रकाश
सुबह सुबह पहुँचे मेरे पास

बोले तुम हो कराटे के ज्ञाता
मुझे तो पंच चलाना भी नहीं आता

मुझे भी तुम कुछ सिखला दो ना
कैसे भी हो ब्लैक बेल्ट दिलवा दो ना

पैसा जो लगे मैं दे सकता हूँ
हौसला इतना बुलंद मैं रखता हूँ!

मैंने कहा पैसे पर सब कि नीयत ललचायी
पर मेरे पास नहीं ऐसे सेन्साई

सीखना है तो पुरुषार्थ कर सीखो
निरंतर अभ्यास कर सीखो

कंडीशनिंग करो बुंकाई करो साथ में करो काता
फिर देखो प्रैक्टिस मैं कैसा मजा है आता!

यह तो भारत की पुरानी युद्ध शैली थी
जो बाद में चीन जापान में फैली थी

चलो खूब मेह्नत करे पसीना बहाएं
स्वस्थ्य और मजबूत समाज बनाये

इस कला को फिर घर घर पहुँचाये
भारत की खोयी कला वापस ले आयें !!

Tuesday 21 November 2017

तुस्टीकरण

पाकिस्तान में होनेवाले हर ब्लास्ट की इल्ज़ाम हिन्दुस्तान पे आती है,
और गुरमेहर तेरे पिता को पाकिस्तान नहीं लड़ाई मार जाती है ?

भारत के टुकड़े करने वालों के लिए भी कुछ लिख देती,
किन कारणों से वो सही हैं जरा हमें भी सीख देती !

ऐसे ही आज़ादी मांगते मांगते कन्हैया जी छा गये, 
लगता है उन्हीं के नक़्शे-कदम तुम्हें भी भा गये !

वैसे भी देखभक्ति की बात करने वाले सांप्रदायिक हो जाते हैं, 
और तुस्टीकरण की राजनीती करने वाले लिबरल कहलाते हैं !

विश्व-विद्यालयों से राजनितिक पार्टियाँ हटनी चाहिए, 
ये शिक्षा का मंदिर है यहाँ सिर्फ विद्या बटनी चाहिए !

पानी


धरती को यूँ रौंदा हमने, शीतल बयार मंद हो गये,
सूरज की तपिश बढ़ती गयी, बादल बनने बंद हो गये।


सूखे कुएं, सूखे पोखर, सुख गई सारी नदियाँ अब,
पानी की तलाश में बीतेंगी आनेवाली सदियाँ अब !


चलो कुछ इस कदर शहर में जंगल बसायें,
कि सृष्टि स्वयं समंदर से पानी खींच बरसाये !

बंधन

मेरी नजरों में ये दोस्त तू ख़ुदा था, 
क्यूंकि रंग तेरा ज़माने से जुदा था,

कौन सी कमी मेरी नागवार गुजरी की तू रुठ गया,
गाँठ की गुंजाइश भी अब नहीं, जब बंधन ही ये टूट गया!

अनुराग

करने को पूरे अरमान, अपनों के मन के,
हमारी जिंदगी में आये, तुम बहार बन के !
नेमत तुम पितरो की, तुम ईश्वर का वरदान,
हर मुस्कान पे तेरी, जन्नत की खुशियां कुर्बान !
है दुआ ये मेरे दिल की, जन्मदिवस पे तेरे,
ग़म की न बदरी छायें कभी, बरसे सुख घनेरे !
आकाशगंगा में जब तक सितारे रहें,
प्रेम अनुराग से भरी तेरी जिंदगानी रहे !

सत्त्व

न जाने क्यों गांव का पीपल रूठता जा रहा है,
घर घर से बुजुगों का साया उठता जा रहा है।
बड़े बूढ़े क्या गए देवत्व चला गया,
उनके साथ मेरे गांव का सत्त्व चला गया !
हमारी गलतियों की ऐसी सजा न कर विधाता,
उन कर कमलो की कृपा हम पर रहने दे ये दाता।


दुरी


कल सुना था गाँव का एक बच्चा भूख से मर गया,
आज पता चला शहर में अनाज गोदाम में सड़ गया !

एक तरफ़ चाँद और धरती की दुरी घटती जा रही है,
दूसरी तरफ़ अनाज और पेट की दुरी बढ़ती जा रही है !

कही क़र्ज़ के बोझ तले दब भूख से मर रहा अन्नदाता किसान है,
कही कटप्पा और बाहुबली के पीछे करोड़ो लगा रहा इंसान है!

कही हीरो के पोस्टरों को दूध से यूँ नहलाये मानो भगवान है,
देख सब लगता है सचमुच मेरा देश कितना महान है।

वो मिट्टी वाले दिन


जाने कहाँ गए वो गांव के मिट्टी वाले पल ,
बात बात पे करते कट्टी मिठ्ठी वाले  पल!

जाड़ों में घूरो को घेर के तपने वाले पल,
ठंडे पानी से नहाकर कंपने वाले पल!

आग पे रखकर पके हुए वो मक्के वाले पल
नारंगी के गेंद पे लगते छक्के वाले पल!

आम के पेड़ों पे चलते वो ढेलों वाले पल,
पटरी पे रख के कान सुने, वो रेलों वाले पल!

तपते हुए रस्तों पे उड़ते धूलों वाले पल,
खेतों में बोयी सरसो के फूलों वाले पल!

बाग में बैठ के लीची दम भर खाने वाले पल,
शाम हो जाने पर भी घर नहीं जाने वाले पल!

झूमती बारिश में फ़ुटबाल के मैचों वाले पल,
बाउंड्री लाइन के ऊपर छूटते कैचों वाले पल!

जाने कहाँ गए वो गाँव के मिट्टी वाले पल,
पीपल के पत्तों पे लिखे चिट्ठी वाले पल!

दोहे -गीता सार

      आगे  की  चिंता  करे,  बीते पर  क्यों रोय भला हुआ होगा भला, भला यहॉँ सब होय।   लेकर कुछ आता नहीं,  लेकर कुछ न जाय  मानव फिर दिन रात ही,...