क्या कुछ पाया, कितना कुछ खोये
सोच कर नए साल पर बहुत रोये
रोज निकलते थे और कही खो जाते थे
रात में थकन को ओढ़ सो जाते थे
चमक जूतों की बढ़ाने में, आँखों की रौशनी गवाँते रहे
देशी घी अब मयस्सर कहाँ, बस ब्रेड ही चबाते रहे
अपने बच्चों की तक़दीर तो बनाते रहे
पर माँ बाप की तक़लीफ़ भुलाते रहे
रिस्ते इस कदर निभाते रहे
बस रूठते मनाते रहे
बार बार जख़्म बेवफाई के खाते रहे
फिर भी उम्मीद नए दोस्तों से लगाते रहे
खिड़की खोल रोज रोशनियों को बुलाते रहे
नये सूरज की तलाश में रोज दिये जलाते रहे
लम्हें यूँ हि आते और जाते रहे
न जाने क्यूँ हर वर्ष हम नया साल मनाते रहे!
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