Wednesday 22 November 2017

क़श्मक़श

दिल और दिमाग़ में चल रही क़श्मक़श ,
निन्यानवे के चक्कर में कहाँ गया फँस ! 

घर बार छूटा रिश्ते नाते सब छूटे ,
मिले तो सिर्फ़ दिखावे के व्यवहार झूठे !

कब की छूट गयी वो बचपन की गलियाँ ,
अब तो राहों में बस सजी कागज की कलियाँ !

वो माँ संग बच्चों का गाना -दो एकम दो , दो दूनी चार ,
अब टु वन ज टू, टू टू ज फोर से हो गए पेरेंट्स बेकार !

वो डंडे से डराना ट्यूशन में सरजी का ,
पहाड़ लगे पढ़ना अब पुस्तक भी मर्जी का !

तब हर बात पे बजती थी दोस्तों की तालियाँ ,
वो बैठक वो कहकहे और वो बेबाक गालियाँ !

वो क्रिकेट के चक्कर मे देना ट्यूशन की बलि ,
अब के गोल्फ से, गिल्ली डंडा ही थी भली !

वो चित्रहार देखना पड़ोसी के घर में भागकर ,
कहना - आया हूँ दोस्त से एक बुक माँगकर !

वो खुले आसमान तले पर्दे पे फ़िल्मों का मज़ा ,
अब तो मल्टीप्लेक्स में जाना भी लगे है सजा !

वो फुटबॉल का मैच और झूमती हुयी बारिश ,
अब तो टीम बनाने को भी करनी परे गुज़ारिश !

वो धागे माँजना धूप में पतंगों के लिए ,
अब बाहर निकलना भी लगे हार्मफुल अंगों के लिए !

वो मुहल्लों को लाँघ जाना कटे पतंगों के पीछे ,
और अब उतरना भी बेकार लगे बालकनी से नीचे !

एक उमँग उठती थी कटी पतंगों की हर अंगराई पर ,
अब नज़रे उठती हैं सिर्फ़ दूसरों की बुराई पर !

वो स्कूल के डेस्क पर ज़माना गानों की महफ़िल ,
अब अग़र ग़लती से भी गुनगुनाओ तो कहलाओगे ज़ाहिल !
 
वो माँ का प्यार, भाई बहनों का दुलार और पिताजी की मार ,
काश वापस आ जाये वो दिन फिर से यार !

वो गलियाँ अक्सर मुझे बुलातीं हैं ,
वो मुहल्ले की नुक्कड़ अब भी याद आती हैं !

सोचता हूँ सब छोड़ उस गली का हो जाऊँ ,
उन बचपन की लम्हों को फ़िर से जी जाऊँ !

दिल और दिमाग़ में चल रही क़श्मक़श ,
अब जैसे भी हो यहाँ से निकल जाऊँ बस !

No comments:

Post a Comment

दोहे -गीता सार

      आगे  की  चिंता  करे,  बीते पर  क्यों रोय भला हुआ होगा भला, भला यहॉँ सब होय।   लेकर कुछ आता नहीं,  लेकर कुछ न जाय  मानव फिर दिन रात ही,...