ढूँढा गाँव गाँव, खोजा शहर शहर,
जाने कहाँ गये वो झील, वो पोखर,
जिधर देखा, बस दीवार ही दीवार आई नजर,
आख़िर लूटा किसने, बारिश की बूँदों का घर,
ठहरे तो ठहरे कहाँ, बसे तो बसे किधर,
रास्तों पर भटकती, पहुँचती नदी के दर,
समेटे यादें मिट्टी की, अपने ब्यथित मन के अंदर,
नदी में गिरती पड़ती, मज़बूर जाने को समन्दर,
थी उसकी अभिलाषा रहूँ, निज निलय में जीवन भर,
अनवरत आँसू उसके, रख देते पयोधि को खारा कर,
फिर जब प्यासी धरती पुकारती तड़प तड़पकर,
नभ में उठती जाती बूंदें, रश्मि रथ पर चढ़कर,
महीनों चलता यह क्रम, तब बनते बादल गगन पर,
फिर जाकर बरसती घटायें, सावन भादो बन कर,
तपती धरणी पे शीतल बूँदें, जब पड़ती झम झम कर,
कहीं सीप में बनते मोती, नाचे मोर कहीं छमछम कर,
कुछ ही देर में सारी बूंदें, छा जाती धरा पर,
घर वापसी की खुशी, टिक न पाती ज़रा पर,
खोजती खोजती थक जाती, मिलता नहीं उसका घर,
बाढ़ न लाये तो फिर, आखिर क्रोध जताये क्या कर,
पहल सबको करना होगा, निर्विलम्ब जतन कर,
कैसे भी हो देना ही होगा, बूँदों को एक नया घर!
-आशुतोष कुमार
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